उपन्यास >> चैत की दोपहर में चैत की दोपहर मेंआशापूर्णा देवी
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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...
चैत की दोपहर में
1
चैत की दोपहर की तीखी धूप में आकाश भयावना लग रहा है। पूरे मुहल्ले में सन्नाटा रेंग रहा है। तमाम मकान भी जैसे दिवानिद्रा में निमग्न हो आराम कर रहे हैं। इस तरह के माहौल में अरण्य जनशून्य रास्ते पर लंबे डग भरता हुआ आगे बढ़ रहा है।
शर्ट का पिछला हिस्सा पसीने से तर-वतर होने के बाद गरम हवा के झोंके से सूख गया है। इतनी तीव्र गति से चलते रहने के बावजूद अरण्य इधर-उधर आँखें दौड़ा रहा है कि कहीं किसी रिक्शे पर नजर पड़ जाए। लेकिन कहाँ है रिक्शा? आस-पास कहीं किसी ओर भी रिक्शे के हुड तक पर निगाह नहीं पड़ रही है।
अरण्य इस मुहल्ले से परिचित नहीं है, ऐसे में उसे कैसे पता चल सकता है कि रिक्शा-पड़ाव कहाँ है।
अचानक कोई कहीं से बोल-पड़ा, ''अरे, तुम यहाँ?''
अरण्य ठिठककर खड़ा हो गया।
यह अवंती के गले की आवाज़ है न?
ओह! सुना था जरूर कि अवंती का लेक टाउन या इसी तरह के किसी स्थान में नया मकान बन रहा है। मकान से सटा हुआ अब भी बाँस का मचान बना हुआ है, दो मंजिले पर मिस्त्री काम कर रहे हैं। लिहाजा पहली मंजिल में रह रहे हैं वे लोग। सड़क पर ग्रिल से घिरे आच्छादित बरामदे पर से अवंती बोल उठी थी।
'प्यासा आसमान काँप रहा है'-जैसी हालत में सड़क की शोभा देखने के खातिर बरामदे पर निकलना बेमानी है। फिर भी अचानक अवंती को बाहर का नजारा देखने की इच्छा क्यों हुई, पता नहीं। हो सकता है, नया मुहल्ला रहने के कारण। बाहर निकलते ही उसे दिखाई पड़ा कि उस सुनसान सड़क पर तीखी धूप में कोई तेज कदमों से आगे बढ़ रहा है।
नहीं, छाते का कोई सवाल नहीं उठता, क्योंकि आजकल औरतों और बूढ़ों के अलावा और कोई छाते का इस्तेमाल नहीं करता। न धूप में, न बारिश में। छाते की ओट में नहीं है, पूरा चेहरा दिख रहा है। भंगिमा पहचानी-पहचानी जैसी लग रही है। बिना कुछ सोचे-समझे अवंती बरामदे से सड़क पर चली आयी।
ग्रिल में दरवाजा है, दोपहर में भी ताला लगा होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। इसे खुशकिस्मती ही कहनी चाहिए। कर्तव्य की अवहेलना के लिए कामगार को वख्शीश देना क्या उचित नहीं होगा? अवंती ने सोचा।
अवंती के बाहर निकलते ही तेज कदमों से चलने वाला आदमी एकबारगी गेट के पास पहुँच गया। अवंती बोली, ''अरे, तुम यहाँ?''
अरण्य को ठिठककर खड़ा होना ही पड़ा। जवाब भी देना पड़ा। बोला, ''क्यों, सड़क क्या तुम्हारे पति ने खरीद ली है? और किसी दूसरे का चलना-फिरना मना है?''
अवंती बोली, ''उफ! तुममें जरा भी बदलाव नहीं आया। मगर यह तो बताओ, इस तरह भागे-भागे कहाँ जा रहे हो?''
''यम के घर।'' अरण्य ने कहा।
''वाह! जाने के लिए वह सबसे उत्तम स्थान है। लेकिन सुना है, उस घर का दरवाजा दक्षिणमुखी है और तुम उल्टी दिशा में जा रहा हो।''
अरण्य जल्दबाजी में है। जीवन-मरण का ही प्रश्न कहा जा सकता है। फिर भी इस चिलचिलाती धूप से तपती दोपहर में सड़क पर निकल आयी अवंती के चेहरे की ओर उसने ताका और कुछ देर तक ताकता ही रहा। पहले के वनिस्वत अवंती क्या थोड़ी दुबली हो गई है? या फिर मोटी? ठीक कैसी थी, याद क्यों नहीं आ रहा है!
इसी सोच में डूबता-उतराता अरण्य बोल उठा, ''उस साले का क्या एक ही दरवाजा है। हजारों द्वारों वाला राजमहल है। खैर, बहुत दिनों के बाद तुमसे मुलाकात हुई। चलूँ, खड़े रहने की फुर्सत नहीं है।''
अवंती जरा आगे बढ़कर आयी। बोली, ''मगर...मगर, अभी यहाँ हो, क्यों और कहाँ जाना है, यह बताओगे नहीं?''
अरण्य बोला, ''कहना ही होगा! कहने को बाध्य हूँ क्या?''
अवंती ने उसकी आँखों की ओर ताकते हुए कहा, ''यदि कहूँ हाँ, तो फिर?''
अरण्य ने अब तनिक सहज स्वर में कहा, ''हुँ, फिर तो कहना ही होगा।''
पहले की अपेक्षा और अधिक सहज और अंतरंग स्वर में कहा, ''मामला बड़ा ही सीरियस है, अवंती। श्यामल की पत्नी को डिलिवरी पेन हो रहा है-कहने का मतलब है डेट के पहले ही...''
अवंती को थोड़ा आश्चर्य हुआ, ''श्यामल यहीं आस-पास कहीं रहता है? मगर श्यामल की पत्नी के लिए तुम इस तरह मारे-मारे फिर रहे हो?''
अरण्य ने चट से जवाब दिया, ''इसे नियति ही कह सकती हो। घूमने-फिरने पहुँचा तो यह हालत देखी। घर में श्यामल है, उसकी माँ आज ही लड़की के घर या कहीं गई है। बेचारे की हालत पागल जैसी है, अभी तुरन्त नर्सिंग-होम ले जाना जरूरी है। पर कोई टैक्सी नहीं मिली। आखिर में एक रिक्शे की तलाश में निकला हूँ...''
रिक्शा?
अवंती चिहुँककर बोली, ''ऐसी हालत में?''
''आस-पास कोई 'सदन' है। नाम भी लिखा दिया गया है। अच्छा, मैं चलता हूँ। श्यामल ने तो कहा था कि सिनेमा हाउस की तरफ रिक्शा मिल सकता है। मगर सिनेमा हाउस कहाँ है, मालूम नहीं। अच्छा...''
अरण्य ने कदम बढ़ाया।
लेकिन बढ़ा नहीं सका।
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